दायरों में सिमटी ज़िंदगी ,
अब नहीं चाहती हूँ
मिलन समर्पण और विश्वास
अब नहीं चाहती हूँ ।
साँसे जब मेरी हैं ,
तो क्यों धड़के तुम्हारे इशारों पर
बंधनों की ये जंज़ीरें
अब नहीं चाहती हूँ }
शिकायतें अर्ज़ियाँ लिख कर
खुद ही पढ़ डाली हैं
हक़ में हो फैसला तुम्हारे
अब नहीं चाहती हूँ |
अब नहीं चाहती हूँ
मिलन समर्पण और विश्वास
अब नहीं चाहती हूँ ।
साँसे जब मेरी हैं ,
तो क्यों धड़के तुम्हारे इशारों पर
बंधनों की ये जंज़ीरें
अब नहीं चाहती हूँ }
शिकायतें अर्ज़ियाँ लिख कर
खुद ही पढ़ डाली हैं
हक़ में हो फैसला तुम्हारे
अब नहीं चाहती हूँ |