ब्यर्थ ही मे
देखती हूँ
सूने गगन को ,
चाँद ,तारे तो
तुम्हारी आँखों में रहते हैं।
इनको पाना मेरी मंज़िल है ,
फिर क्यों नहीं बढ़ते हैं हाथ
जब ये निरपराध
टूट -टूट कर गिरते है।
मेरी मंज़िल मेरे पास
न जाने कितनी बार
आ -आ कर चली जाती है
मैं चकित हो
देखती रह जाती हूँ चुपचाप ।
देखती हूँ
सूने गगन को ,
चाँद ,तारे तो
तुम्हारी आँखों में रहते हैं।
इनको पाना मेरी मंज़िल है ,
फिर क्यों नहीं बढ़ते हैं हाथ
जब ये निरपराध
टूट -टूट कर गिरते है।
मेरी मंज़िल मेरे पास
न जाने कितनी बार
आ -आ कर चली जाती है
मैं चकित हो
देखती रह जाती हूँ चुपचाप ।