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Friday 15 April 2016

MANZIL

ब्यर्थ  ही  मे 

देखती  हूँ

सूने  गगन  को ,

चाँद ,तारे  तो

तुम्हारी आँखों  में  रहते  हैं।

इनको पाना मेरी मंज़िल  है ,

फिर क्यों  नहीं  बढ़ते  हैं  हाथ

जब ये निरपराध

टूट -टूट  कर  गिरते है।

मेरी मंज़िल  मेरे  पास

न जाने  कितनी  बार

आ -आ  कर  चली  जाती  है

मैं चकित  हो 

देखती रह  जाती  हूँ  चुपचाप ।